गुलज़ार साहब का नाम आते ही दिल को छू जाने वाले कई गीतों को लोग खुद ब खुद गुनगुनाने लगते हैं. मशहूर लेखक, शायर, पटकथा लेखक, गीतकार, कवि गुलज़ार ने एक से बढ़कर एक गीत लिखे हैं. कविताएं रची हैं, जो लोगों के दिलो-दिमाग में बसी हुई हैं. आज गुलज़ार साहब का जन्मदिन है. पाकिस्तान में जन्मे गुलज़ार का मूल नाम ‘सम्पूरण सिंह कालरा’ है. छोटी सी उम्र से ही उन्हे कविताएं लिखने का शौक था. उनकी रचनाएं मुख्य रूप से हिंदी, पंजाबी, उर्दू में होती हैं. हालांकि, उन्होंने कई अन्य क्षेत्रीय भाषा में भी रचनाएं लिखी हैं. उनकी कई कविताओं में रिश्तों के टूटने-जुड़ने, बिखरने और प्यार की खुशबू, मोहब्बत में मिला दर्द महसूस होता है.
‘बंदिनी’से शुरू किया हिंदी सिनेमा में करियर
हिंदी सिनेमा में बतौर गीत लेखक गुलजार का करियर एस डी बर्मन की फिल्म ‘बंदिनी’ से शुरू हुआ. साल 1968 में उन्होंने फिल्म आशीर्वाद का संवाद लेखन किया. इसके बाद उन्होंने कई बेहतरीन फिल्मों के गानों के बोल लिखे जिसके लिए उन्हें हमेशा आलोचकों और दर्शकों की तारीफें मिली. आंधी (1975) गुलजार की बेहतरीन फिल्मों में से एक है. कुछ लोगों ने इस फिल्म को पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से जोड़कर देखा.आपातकाल के दौरान इस फिल्म पर प्रतिबंध भी लगाया था. यह फिल्म कमलेश्वर द्वारा लिखे गए हिंदी उपन्यास ‘काली आंधी’ पर आधारित है.1996 में गुलजार द्वारा निर्देशित फिल्म ‘माचिस’ को अच्छी सफलता मिली. हु तू तू (1999) गुलजार द्वारा निर्देशित आखिरी फिल्म है. इसके बाद उन्होंने कोई फिल्म निर्देशित नहीं की.
‘जय हो’ गीत के लिए मिला ऑस्कर अवार्ड
गुलजार को हिंदी सिनेमा के लिए कई प्रसिद्ध अवार्ड्स से भी नवाजा जा चुका है. उन्हें 2004 में भारत के सर्वोच्च सम्मान पद्म भूषण भी प्रदान किया गया था. साल 2009 में उन्होंने हॉलीवुड फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर का गाना जय हो लिखा. उन्हें इस फिल्म के ग्रैमी अवार्ड से भी नवाजा गया. उन्होंने बतौर निर्देशक भी हिंदी सिनेमा में अपना बहुत योगदान दिया है. उन्होंने अपने निर्देशन में कई बेहतरीन फ़िल्में दी हैं जिन्हे दर्शक आज भी देखना पसंद करते हैं. उन्होंने बड़े पर्दे के अलावा छोटे पर्दे के लिए भी काफी कुछ लिखा है, जिसमें दूरदर्शन का शो ‘जंगल बुक’ भी शामिल है. उनके जन्मदिन पर आप भी पढ़ें गुलज़ार द्वारा लिखी गई रिश्तों पर अधारित कुछ मशहूर कविताएं.
महामारी लगी थी
घरों को भाग लिए थे सभी मज़दूर, कारीगर
मशीनें बंद होने लग गई थीं शहर की सारी
उन्हीं से हाथ पाओं चलते रहते थे
वरना ज़िंदगी तो गाँव ही में बो के आए थे।
वो एकड़ और दो एकड़ ज़मीं, और पाँच एकड़
कटाई और बुआई सब वहीं तो थी
ज्वारी, धान, मक्की, बाजरे सब।
वो बँटवारे, चचेरे और ममेरे भाइयों से
फ़साद नाले पे, परनालों पे झगड़े
लठैत अपने, कभी उनके।
वो नानी, दादी और दादू के मुक़दमे
सगाई, शादियाँ, खलिहान,
सूखा, बाढ़, हर बार आसमाँ बरसे न बरसे।
मरेंगे तो वहीं जाकर जहाँ पर ज़िंदगी है
यहाँ तो जिस्म लाकर प्लग लगाए थे!
निकाले प्लग सभी ने,
‘चलो अब घर चलें’—और चल दिए सब,
मरेंगे तो वहीं जाकर जहाँ पर ज़िंदगी है!