संसद का 5 दिवसीय विशेष सत्र 18 सितंबर से शुरू होने जा रहा है. सरकार ने सत्र का प्रस्तावित एजेंडा पेश कर दिया है. इसमें कहा गया कि सत्र के पहले दिन राज्यसभा और लोकसभा में 75 सालों की संसद की यात्रा पर चर्चा होगी. बाकी के चार दिनों में चार विधेयकों पर चर्चा की जानी है. हालांकि, विपक्ष को लग रहा है कि सरकार कुछ बड़ा भी कर सकती है और वेन नेशन, वन इलेक्शन, देश का नाम सिर्फ भारत करने या फिर यूनिफॉर्म सिविल कोड से संबंधित भी कोई विधेयक पेश किया जा सकता है.

1947 से 2023 तक कई बार विशेष सत्र बुलाया गया, लेकिन शायद ही कभी यह इतना ज्यादा चर्चाओं में रहा होगा, जितना इस बार है. कब बुलाया जाता है विशेष सत्र, क्या विपक्ष की अनुमति भी जरूरी है, कब-कब बुलाया गया और इसकी प्रक्रिया क्या है? ऐसे सभी सवालों के जवाब आपको यहां मिलेंगे. सबसे पहले बात करते हैं कि विशेष सत्र क्या है, कब और कैसे बुलाया जाता है.
क्या होता है विशेष सत्र?
संविधान में कहीं भी ‘विशेष सत्र’ शब्द का जिक्र नहीं है. हालांकि, अनुच्छेद 352 (आपातकाल की उद्घोषणा) में ‘संसद की विशेष बैठक’ का जिक्र किया गया है. इस भाग को जोड़ने का मकसद देश में इमरजेंसी की घोषणा करने के सरकार की शक्ति को कंट्रोल करने के लिए किया गया था. इस प्रावधान के तहत अगर इमरजेंसी की घोषणा की जाती है तो राष्ट्रपति को सदन की विशेष बैठक बुलाने का अधिकार है. वहीं, लोकसभा के वन-टेंथ सांसद (यानी कुल सदस्यों का दसवां हिस्सा) आपातकाल को अस्वीकार करने के लिए राष्ट्रपति से विशेष बैठक बुलाने के लिए कह सकते हैं.
संविधान का अनुच्छेद 85(1) राष्ट्रपति को समय-समय पर संसद के दोनों सदनों को बैठक बुलाने के लिए कह सकते हैं. राष्ट्रपति अपनी समझ के हिसाब से सत्र के लिए समय और स्थान निर्धारित कर सकते हैं. संविधान में प्रावधान है कि संसद के दो सत्रों के बीच 6 महीने से ज्यादा का अंतर नहीं होना चाहिए. विशेष सत्र और सामान्य सत्र के नियम एक समान होते हैं. विशेष सत्र और बाकी के तीनों सत्र अनुच्छेद 85(1) के तहत ही बुलाए जाते हैं. सामान्यत: एक साल में लोकसभा के तीन सत्र होते हैं. पहला बजट सत्र होता है, जो फरवरी से मई महीने के दौरान चलता है. दूसरा मानसून सत्र होता है, जो जुलाई से अगस्त के बीच चलता है और तीसरा शीतकालीन सत्र साल के आखिर में नवंबर से दिसंबर महीने के बीच आयोजित किया जाता है. सत्र बुलाने का अधिकार सरकार के पास होता है. संसदीय मामलों की कैबिनेट कमेटी इसका फैसला करती है और फिर औपाचारिक रूप से राष्ट्रपति इसे मंजूरी देते हैं.
