कारगिल युद्ध तीन मई से शुरू होकर 26 जुलाई 1999 तक कुल 2 माह तीन हफ्ते तक चला। कारगिल युद्ध के आखिरी हफ्तों में भारत और पाकिस्तान की सेनाओं में एक दूसरा ‘युद्ध’ शुरू हो गया। वह ‘युद्ध’ था, जंग में मारे गए सैनिकों की खोजबीन का। पाकिस्तान ने तो जंग में मारे गए अपने अधिकांश सैनिकों के शवों को लेने से इनकार कर दिया, जिसके चलते भारतीय सेना ने अपना फर्ज निभाते हुए उन्हें धार्मिक सम्मान के साथ कारगिल में ही सुपुर्द-ए-खाक कर दिया। लेकिन इनमें एक भारतीय फौजी ऐसा भी था, जिसे युद्ध के दौरान ‘मिसिंग या किल्ड इन एक्शन’ करार दे दिया गया। लेकिन उसकी पत्नी उसके आने का इंतजार करती रही।
मुआवजा लेने से किया साफ इनकार
नेपाली मूल के 1/11 गोरखा राइफल्स के लांस नायक दुन नारायण श्रेष्ठा को खोजने के लिए उनकी पूरी बटालियन घाटी में उतर गई। उन्हें हर जगह खोजा गया। यहां तक कि उनका सुराग ढूंढने के लिए खोजी कुत्तों का भी इस्तेमाल किया गया। लेकिन उनका कहीं अता-पता नहीं चला। उनकी बटालियन को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। ‘मिसिंग या किल्ड इन एक्शन’ की स्थिति में सैनिक के निकटतम परिजनों (NOK) को मुआवजा दिया जाता है। कई बार ऐसी कहानियां सुनने को मिलती हैं कि मुआवजे के लिए परिवारों में झगड़े हो जाते हैं, लोग झूठ का सहारा लेते हैं, लेकिन उनकी पत्नी टेक कुमारी ने मुआवजा नहीं लिया। नेपाल के तनहु जिले के भीमदाद गांव की रहने वाली टेक कुमारी ने मुआवजा लेने से साफ इनकार कर दिया। उन्हें मुआवजा देने के कई प्रयास किए गए। एक साल बाद 2000 में खुद सीओ अमूल अस्थाना अपने परिवार के साथ उनसे मिलने नेपाल गए, लेकिन वह अपनी जिद पर अड़ी रहीं। उन्हें खूब समझाने की कोशिश की गई। वीर नारी ने स्पष्ट कह दिया कि पहले उसे सबूत दिखाया जाए कि उसका पति मर चुका है, उसी के बाद वह मुआवजा स्वीकार करेगी। उनका कहना था कि एक दिन उसके पति अपने दोनों बच्चों अशोक और सुनील से मिलने वापस जरूर लौंटेंगे।
सबने माना पाकिस्तानियों ने बना लिया बंदी
1/11 गोरखा राइफल्स के लांस नायक डीएन श्रेष्ठा 11 मई, 1999 को एलओसी स्थित बटालिक के कुकर थांग इलाके में एक पाकिस्तानी बंकर पर हमला करते समय लापता हो गए थे। उनके कार्यवाहक सीओ को एक सादे कागज के टुकड़े पर युद्ध के मोर्चे पर हुई घटना की सूचना तुरंत दे दी गई थी। उनके एक रिश्तेदार दीपक बताते हैं कि क्योंकि टेक कुमारी को उनके पति का शव नहीं मिल पाया था। उनको लगता था कि जंग के दौरान पाकिस्तानी उन्हें जिंदा ही युद्ध कैदी बनाकर अपने साथ ले गए होंगे। मानद कैप्टन कृपासोर राय बताते हैं कि 11 मई की रात को डेल्टा कंपनी की एक टुकड़ी ने उनकी कमान में कुकर थांग की चढ़ाई शुरू की थी। जब वे चढ़ाई कर रहे थे, तो पाकिस्तानियों ने ऊबड़-खाबड़ रिजलाइन के ऊपर से मशीन गन से गोलीबारी शुरू कर दी। तोपखाने की गोलाबारी, लगातार गिरते ओले और बर्फ के चलते हम सब अलग हो गए। अगली सुबह टुकड़ी एक जगह एकत्रित हुई, और गिनकी हुई तो पाया कि श्रेष्ठ सहित दो लोग लापता हैं। खोजबीन करने पर हवलदार गंभीर मान राय तो जीवित मिल गए, लेकिन दुन नारायण का कहीं अता-पता नहीं चला। हमने उनकी तलाश की, लेकिन हमें भी लगा कि हम दुश्मन के इलाके में हैं, हो सकता है कि पाकिस्तानियों ने उन्हें बंदी बना लिया हो।
आंख से नहीं ‘नाक’ से ढूंढना है
जब युद्ध अपने अंतिम चरण में पहुंच गया, तो बटालियन के अधिकारियों ने फिर से नेपाली गोरखा श्रेष्ठ की खोज शुरू करने का आदेश दिया। उस समय 12 जम्मू-कश्मीर लाइट इन्फैंट्री और 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स के जवान 16,000 फुट की ऊंचाई पर लावारिस पाकिस्तानी सैनिकों को दफना रहे थे। वह आगे बताते हैं कि उस समय भी कुछ हाथ नहीं लगा। पाकिस्तान को भी सूचना दी गई। लेकिन कुछ पता नहीं चला। उनके साथी को भी उनके बारे में कोई जानकारी नहीं थी। जुलाई के आखिर में जब फिर से खोजबीन शुरू हुई तो जवानों से कहा गया कि उन्हें आंख से नहीं ‘नाक’ से ढूंढना है। ताकि अगर वे शहीद हो गए हों, तो शव से उठती बदबू से पार्थिव शरीर का पता लगाया जा सके।